हमारे में मनन करने सोचने और विचारने की शक्ति न हो, तो संसार में हमारा कोई भी व्यवहार सुसम्पन्न नहीं हो सकता। किसी भी क्षेत्र में मानव का उत्थान व पतन इसी मन के ही तो कारण होता है। मन के बिना मनुष्य जड़ पदार्थ के समान है, उसमें और पत्थर में कुछ भी तो अन्तर नहीं रहता। संसार की किसी भी प्रकार की प्रगति स्वस्थ मन से ही सम्भव है। नीतिकारों का कहना भी है - मन के हारे हार और मन के जीते जीत। यह मन बड़ा चंचल है। यह प्रायः किसी समय भी स्थिर नहीं रहता, और न कभी अकर्मी ही रहता है। हर समय कुछ न कुछ तोड़फोड़ ही करता रहता है।
ऋग्वेद में एक स्थान पर इस मन के विषय में लिखा है कि यह मन वैवम्वत्, यम्, अन्तरिक्ष चतुरिष्ट पृथ्वी चारों दिशाओं जल और औषधियों, सूर्य, उषा बड़े-बड़े पर्वतों तथा सम्पूर्ण जगत् में और उसमें भरे पड़े बहुत दूर-दूर तक जाता है। मन का स्वभाव भागने का है। जैसे जागते हुए व्यक्ति का मन दूर-दूर चला जाता है सोए हुए का भी। इसको न सोते चैन है और न जागते। कुछ न कुछ उधेड़-बुन में लगा ही रहता है। ऐसी है यह मन की चंचलता।
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